शिक्षा के बोध से भय खत्म होता है। लेकिन ग्रामीण इलाकों से आने वाले युवक-युवतियों के सामने शिक्षा डर पैदा कर रही हैं। डर हैं- समाज में पहले से मौजूद रूढ़वादी परम्पराओं से लड़ना। समाज के तथाकथित पंच-पटलों और ठेकेदारों का सामना करना। कहने को तो ये पंच-पटेल, अपने आप को समाज के रक्षक के तौर पर प्रदर्शित करते हैं। लेकिन हकीकत कुछ और हैं। समाज कल्याण ये हैं कि हर शख्स के अधिकारों की रक्षा हो सके। आजाद फैसले अपने हित में ले सके। किसी समाज में अगर हर शख्स अपने हितों की रक्षा के लिए संघर्षरत नहीं है, तो इसका मतलब ये हैं कि समाज उत्थान का काम हो रहा हैं। संघर्ष वहां करना पड़ता हैं, जहां अहित और अन्याय की बात होती हैं। जब भी कोई नई शुरुआत होती हैं तो इसे जाने बिना लोग विरोध प्रदर्शन पर उतर आते हैं। उसे गलत नज़रिए से देखते हैं। ये लोग कोई और नहीं, बल्कि समाज के तथाकथित पंच-पटेल ही हैं। शिक्षा हमेशा बदलाव लाने की पैरवी करती हैं। कुरीतियों से लड़ने के लिए आवाज उठाती हैं। लेकिन पंच-पटेल चाहते हैं ये कुरीतियां जारी रहे ताकि उनकी "दुकानदारी" चलती रहें। कम शिक्षित ग्रामीण इलाकों खासकर
अणदाराम बिश्नोई का ब्लॉग