शिक्षा के बोध से भय खत्म होता है। लेकिन ग्रामीण इलाकों से आने वाले युवक-युवतियों के सामने शिक्षा डर पैदा कर रही हैं। डर हैं- समाज में पहले से मौजूद रूढ़वादी परम्पराओं से लड़ना। समाज के तथाकथित पंच-पटलों और ठेकेदारों का सामना करना। कहने को तो ये पंच-पटेल, अपने आप को समाज के रक्षक के तौर पर प्रदर्शित करते हैं। लेकिन हकीकत कुछ और हैं।
समाज कल्याण ये हैं कि हर शख्स के अधिकारों की रक्षा हो सके। आजाद फैसले अपने हित में ले सके। किसी समाज में अगर हर शख्स अपने हितों की रक्षा के लिए संघर्षरत नहीं है, तो इसका मतलब ये हैं कि समाज उत्थान का काम हो रहा हैं। संघर्ष वहां करना पड़ता हैं, जहां अहित और अन्याय की बात होती हैं।
जब भी कोई नई शुरुआत होती हैं तो इसे जाने बिना लोग विरोध प्रदर्शन पर उतर आते हैं। उसे गलत नज़रिए से देखते हैं। ये लोग कोई और नहीं, बल्कि समाज के तथाकथित पंच-पटेल ही हैं।
शिक्षा हमेशा बदलाव लाने की पैरवी करती हैं। कुरीतियों से लड़ने के लिए आवाज उठाती हैं। लेकिन पंच-पटेल चाहते हैं ये कुरीतियां जारी रहे ताकि उनकी "दुकानदारी" चलती रहें।
कम शिक्षित ग्रामीण इलाकों खासकर राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र में बदलाव के लिए पहल करना युवाओं के लिए सबसे कठिन काम हैं। आजादी और शिक्षा के महत्व को युवा सही ढंग से समझ नहीं पा रहे हैं। वहीं जो युवा, इसे समझ पा रहे हैं, उनके राहों में कई रोड़े हैं। उनके लिए समाज के उस वर्ग को समझाना सबसे मुश्किल काम हैं, जो कुरीतियों को ही सर्वश्रेष्ठ परंपरा मानते हैं।
ऐसे में ग्रामीण इलाकों से आने वाले युवा ना तो समाज में बदलाव ला पाते हैं और ना ही खुद में। वो कुरीतियों और शिक्षा के बीच में ही पीसते रहते हैं।
आज भी आधुनिक युग में कई कुरीतियां मौजूद हैं - बाल विवाह, पर्दा प्रथा और घूंघट, समाज से बहिष्कृत करना इत्यादि।
समाज चाहे किसी भी जाति और धर्म से जुड़ा हो, एक दिन बदलाव को स्वीकार करना ही होगा। जब कोई परंपरा, कुरीति की कैटेगरी में आ जाती हैं, उस समाज में शिक्षित वर्ग पैदा होने पर टकराव तय हैं। समय लगेगा। वो भी वक्त आयेगा, तब हर समाज का हर शख्स पंच पटेल होगा। अपने हक खुद हासिल करेगा और वर्तमान के तथाकथित पंच-पटेलों और समाज के ठेकेदारों के दिन जल्द ही लद जायेंगे।
- अणदाराम बिश्नोई, पत्रकार
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