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28 साल से बेघर इधर है ! सरकार का ध्यान किधर है ?

प्रधानमंत्री आवास योजना यहां बेघर लौगो पर काम क्यो नही कर रही है? क्या इन गरीबो को जिन्दगी भर बिना घर रहना ही नसीब है? न जाने भारत में कितने गरीब लौग इस तरह से बिना घर रहते होगें।

जाने आगे-
कहना कितना अच्छा लगता है राजनेताओ को कि "हम देश की जनता के सेवक हैं, मैं गरीबी से गुजरा हुँ ! मुझे मालूम है  गरीबी का कष्ट कितना दु:खदायी होता हैं।"
        यह सब हमें भी नेताजी के श्रीमुख से सुनने पर काफी सुकुन दिलाता हैं। परन्तु क्या आपने कभी गौर किया हैं कि यह महान नेताजी जो प्रवचन ( भाषण में चुनावी वादे) सुना रहे हैं । उसमें वो कितना अमल करते हैं? यह गरीबों के हितो की बातें तो खुब अच्छे से करते हैं परन्तु क्या जमीनी स्तर पर इन्होने काम किया हैं?
यह सवाल दिखने में काफी साधारण लग रहे हैं लेकिन जनाब ! इनके जवाब देने में नेताओं के कंपकंप छूट जाती हैं।

मै यह आज इतने सवाल इसलिए कर रहा हुँ क्योकि जब हम कहीं बड़े शहर के बाहर इधर-उधर ताक-झाक करते है तो मैने जो उपरोक्त सवाल पूछे हैं , यह अपने आप आपके दिलों-दिमाक में आने शुरू हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ जब दक्षिणी दिल्ली में विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल लोट्स टेंपल के ठीक सामने कुछ दुरी पर स्थित औखला मेट्रो स्टेशन की तरफ जाने लगा।

यहां पर बेघर परिवार रहते है जो अपने आप में उभरते भारत की एक अलग तस्वीर दिखा रहे है। जिसने मुझे यह आलेख लिखने के लिये मजबुर किया !!

100 से ज्यादा झुग्गीयाँ
तिरपाल से बनी हुई झुग्गी इनके लिये घर हैं, चाहे मौसम कैसा भी हो। बरसात में रहना मुश्किल हो जाता हैं। कीचड़ फैलने की वजह से मलेरियाँ व डेंगूँ जैसी भयावह बीमारी फैलने का भी डर सताता रहता हैं। यहां का निवासी कहता हैं "हमारे यहां पर करीब 100 से ज्यादा परिवार झुग्गी  बना कर रह रहे हैं।" 


अधिकतर गाँव-देहात से
जो भी यहाँ पर रहता हैं इनमें से अमुमन बिहार व झारखण्ड के गाँव-देहाती इलाको से हैं।
        झारखण्ड से 6 महीने पहले आई 'कपुरी देवी' कहती हैं कि "गाँव मे  5-6 महीने खेती की और फसल सीजन ऑफ  हो जाने पर  दो  वक्त रोटी  का जुगाड़  के लिये परिवार सहित शहर आ गये । यहां पर दिहाड़ी मजदुरी करते हैं"

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इस कपुरी देवी की तरह अधिकतर परिवार यहां काम की तलाश में आये हुवें हैं। इनमें सें कुछ यही जम जाते हैं और मजदुरी करके अपने परिवार का जैसे-तैसे पेट पालते हैं। जब वहां रहने वाले और लोगो से बात की तो पता चला कि कुछ परिवार ऐसे भी हैं जो 28 सालो से यहीं रहते हैं। परन्तु इनको कभी घर नसीब नहीं हुआ हैं।

प्राथमिक शिक्षा के भी पड़ रहे लाले !
जब बच्चो से बात की तो पता चला कि ज्यादातर बच्चे तो स्कुल जाते ही नहीं हैं। क्योकि दिहाड़ी इतनी अधिक नहीं मिलती हैं कि बच्चो को माता-पिता स्कुली शिक्षा दिलवा सकें।
इतने में मुलाकात यहां झुग्गीयों में रहने वाली दो बालिकाएँ रेखा व रेश्मा से हो जाती हैं। वो बताती है "वो दोनो बड़ी होकर टीचर तथा इन्जीनियर बनना चाहती हैं" ।
जिससे साफ जाहिर हो रहा है कि बच्चों में कुछ करने का हौंसला हैं। परन्तु गरीबी की दल-दल सपनो को आगे उड़ान भरने में आड़ा आ रहा हैं।

यह तो एक शहरी इलाका का दृश्य हैं । आप खुद सोचिए की पुरे अपने देश भर में न जाने कितने ऐसे परिवार होगे , जो बेघर होकर जीवन जीने का संघर्ष कर रहे हैं।
✍ अणदाराम  बिश्नोई

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